यूरोप में कबीर
पश्चिम के देशों में कबीर को जानने की आग सबसे पहले इटैलियन भाषा में लगी। इटली के मार्को डेला टोम्बा ( 1726 - 1803 ) ने कबीर के ज्ञानसागर को इटैलियन भाषा में अनुवाद किया। वह साल 1758 था।
मार्को डेला टोम्बा के अधिकांश जीवन बिहार के बेतिया और पटना में बीते तथा आखिरकार भागलपुर में मृत्यु हुई।
फिर यह आग इंग्लैंड और फ्रांस तक फैल गई और जर्मनी भी अछूता नहीं रहा।
जहाँ एक ओर कैप्टन डब्ल्यू. प्राइस ( 1780 - 1830 ) ने बीजक में पाया जाने वाला गोरखनाथ से कबीर के वार्तालाप को अपनी पुस्तक " हिंदू एंड हिंदुस्तानी सिलेक्शन्स " में संकलित किया, वहीं दूसरी ओर जनरल हैरियट ने " ए मेम्वार आॅन दि कबीरपंथी " में कबीर की कुछ कविताओं का अनुवाद फ्रेंच में प्रस्तुत किया।
जनरल हैरियट ( 1780- 1839 ) ब्रिटिश सेना के आॅफिसर थे। दिल्ली की लड़ाई ( 1803 ) में वे अपना एक पैर गँवा बैठे थे। फिर भी उन्होंने 1832 में कबीर को फ्रेंच में अनूदित किए।
मगर कबीर पर पहला वैज्ञानिक अनुशीलन करने का श्रेय एच. एच. विल्सन को है। विल्सन ( 1786- 1860 ) अंग्रेज प्राच्यविद् तथा मूल रूप से सर्जन थे। कोलब्रुक की अनुशंसा पर वे 1811 में एशियाटिक सोसाइटी आॅफ बंगाल के सचिव हुए। उनका अध्ययन पहली बार हिंदू सेक्ट्स के नाम से एशियाटिक रिसर्चेज में 1828 तथा 1832 में छपा।
वह उन्नीसवीं सदी का पूर्वाद्ध का दौर था। गार्सां द तासी तब फ्रेंच भाषा में हिंदी साहित्य का प्रथम इतिहास लिख रहे थे। वे फ्रांस में पूरबी भाषाओं के प्रोफेसर थे। तासी ने कबीर पर लिखने के लिए पश्चिम के जिन अध्येताओं से आधार - सामग्री ली, उनमें वहीं टोम्बा, प्राइस, हैरियट और विल्सन प्रमुख थे।
गार्सां द तासी ने अपनी पुस्तक " इस्त्वार द ल लितरेत्यूर ऐंदूई ऐ ऐंदूस्तानी " ( प्रथम भाग 1839, दूसरा भाग 1847 ) में कबीर पर तुलसीदास से डेढ़ गुना अधिक लिखा। यह आचार्य रामचंद्र शुक्ल से उलट है।
सिक्खों के पवित्र आदिग्रंथ ( 1604 ) को याद कीजिए, जिसमें हिंदी के संत कवियों में से सर्वाधिक कविताएँ कबीर की संकलित हैं और तुलसीदास बाहर हैं।
कबीर चूँकि आदिग्रंथ के महत्वपूर्ण कवि हैं। सो इस ग्रंथ के बहाने भी कबीर के अनेक अनुवाद हुए, मिसाल के तौर पर अर्नेस्ट ट्रंप ( 1877 ) और मैक्स आर्थर मेकलिफ ( 1909 ) के अनुवाद।
जर्मनी भी अछूता नहीं रहा। अर्नेस्ट ट्रंप ( 1828 - 1885 ) प्राच्यविद्या के जर्मन प्रोफेसर थे। वे कबीर की कुछ कविताओं को 1877 में अनूदित किए। यह वहीं समय है, जब भारत में दयानंद सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश ( 1875 ) की रचना की।
सत्यार्थ प्रकाश में दयानंद सरस्वती ने कबीर के बारे में जो लिखा, वह विचलित कर देने वाला है। लिखा कि कबीर कई पंडितों के पास फिरा, परंतु किसी ने नहीं पढ़ाया। तब ऊट-पटांग भाषा बनाकर जुलाहे आदि नीच लोगों को समझाने लगा। तंबूरे लेकर गाता था; भजन बनाता था। विशेष पंडित, शास्त्र, वेदों की निंदा करता था। कुछ मूर्ख लोग उसके जाल में फँस गए। जब मर गया, तब लोगों ने उसे सिद्ध बना लिया।
यही भारतीय नवजागरण की कबीर के बारे में मानसिकता थी, जो उनके वचनों को भारत में अनुसंधान - कार्य से रोक रही थी। ... और ईसाई अनुसंधानों को गालियाँ बक रही थी।
कानपुर में क्रिश्चियन काॅलेज के प्राचार्य रेवरेंड जी. एच. वेस्टकाट ने जब " कबीर एंड दि कबीर पंथ " ( 1907 ) की रचना की, तब उन पर आरोप लगा कि वे कबीर पंथ का ईसाईकरण कर रहे हैं और कबीर पंथ पर सेंट जोन की रचनाओं का प्रभाव प्रमाणित कर रहे हैं।
आरोप पश्चिम के अनेक विद्वानों पर लगे। विलियम हंटर पर भी लगा कि उन्होंने कबीर को 15 वीं सदी का " भारतीय लूथर " क्यों कहा? मोर्को डेला टोम्बा पर भी आरोप है कि उन्होंने " मुक्ति " का अनुवाद Gloria Permanente ईसाई धर्म के प्रभाव में किया है। आरोप मेकालिफ पर भी है कि वे धर्म के साथ छेड़छाड़ किए। भला " माया " का अनुवाद " Worldly Love " कैसे होगा? ऐसे अनेक।
कोई शक नहीं कि काल, परिवेश और संस्कार लेखन - कार्य को प्रभावित करते हैं और किया भी। बावजूद इसके पश्चिम में कबीर पर जितना कार्य हुआ, संभवतः हिंदी के किसी अन्य कवि पर नहीं हुआ।
भारत के जिस दौर में श्यामसुंदर दास विश्वविद्यालय हित में " कबीर - ग्रंथावली " ( 1928 ) का संपादन कर रहे थे, उस दौर में एफ. ई. के ने लंदन विश्वविद्यालय में कबीर पर थीसिस लिखी थी। यही संशोधित थीसिस 1931 में " कबीर एंड हिज फाॅलोअर्स " के नाम से प्रकाशित हुई।
कबीर को भारतीय लूथर यदि कोई विदेशी ने कहा तो यह भी जानिए कि कबीर को राष्ट्रकवि भी एक विदेशी ने ही कहा है।
गुई सोरमन ने अपनी अंग्रेजी पुस्तक " दि जीनियस आॅफ इंडिया " ( 2001) में कबीर को राष्ट्रकवि कहा है। पहले यह किताब फ्रेंच में आई थी और सोरमन फ्रांस के हैं।
कबीर को राष्ट्रकवि के खिताब से नवाजा जाना आलोचना के क्षेत्र में बड़ी घटना है। राष्ट्रनिर्माण का हर ताना - बाना कबीर - काव्य में मौजूद है। वाकई कबीर बड़े राष्ट्रनिर्माता थे।
0 Comments:
Post a Comment